रिपोर्ट। ललित जोशी।
नैनीताल। सरोवर नगरी नैनीताल के नव सांस्कृतिक सत्संग समिति द्वारा श्री मद भागवत कथा सुनाने आये नमन कृष्ण महाराज ने भगवान परशुराम जयंती के बारे में हमारे जिला संवाददाता ललित जोशी को बताया अक्षय तृतीया। सत्-त्रेता के साथ साथ भगवान परशुराम के प्राकट्योत्सव का दिन। ऐसी तिथि जिसका क्षय नहीं होता और ऐसा ईश्वरीय अवतार परशुराम जिनके तेज का क्षय नहीं हो सकता।
प्रयास कर रहा हूँ कि प्रभु श्रीराम की दृष्टि से भृगुकुल तिलक भगवान परशुराम को देख सकें।
वे परशुराम जो तपवंत हैं……! अन्याय, उच्छृंखलता, उद्दण्डता, अनीति, अत्याचार के विरुद्ध नीति, संस्कार, नियम, सनातन परंपरा एवं धर्मशील राजतंत्र की स्थापना के लिये वे अवतरित हुए।
ऐसे भगवान परशुराम की स्वयं त्रिकालभवंता श्रीराम स्तुति करते हैं। रामचरितमानस के मर्मज्ञ संतों से मैंने सुना है कि मानस में कुल अट्ठाईस स्तुति आई हैं। वस्तुतः स्तुति नहीं वरन अस्तुति ही की गई है (अस्तुति की चर्चा फिर कभी), किंतु प्रभु श्रीराम ने भगवान परशुराम की स्वयं स्तुति की है। प्रभु श्रीराम भगवान परशुराम से कहते हैं….
“देव एकु गुनु धनुष हमारें।
नव गुन परम पुनीत तुम्हारे।।
तथा
“विप्र वंश कै अस प्रभुताई।
अभय होई जो तुम्हई डेराई।।
हे परशुराम! आप विप्रवंशीं हैं और मैं रघुवंशी। आप अनेक गुण सम्पन्न हैं और हम रघुवंशी केवल एक गुणधारी हैं।
हे भृगुनंदन! विप्रवंश की प्रभुता यह है कि आपसे जो डरता है वो वस्तुतः अभय हो जाता है। आप जैसे मुनि से जो जो डरता है वो निर्भय हो जाता है।
बड़ी महत्वपूर्ण बात यहाँ प्रभु श्रीराम कह रहे हैं। ये बहुत मूल्यवान सूत्र है कि जो अपने बड़ों से, पूज्य जनों से डरता है, वह वस्तुतः निर्भय हो जाता है। बच्चे मां-पिता से डरें, शिष्य अपने गुरूदेव से डरें तो यह डर ही अनुशासन बन जाता है, यह डर ही उनके लिए निर्भयता बन जाता है, फिर उनका कोई बिगाड़ नहीं सकता।
उदाहरणार्थ- जैसे अग्नि समर्थ है, अग्नि पूज्य है और कोई छोटा बालक अग्नि से डरता है तो वस्तुतः वह निर्भय हो गया, जलने से बच गया, रक्षा हो गई।
तो जिनसे डरने से निर्भयता आती है वे पूज्य हैं। सद्गुरु के डर से शिष्य निर्भय के साथ निर्भार भी हो जाता है।
ध्यान दें कि पूज्य लोग आपको डराते नहीं हैं, लेकिन बच्चों, शिष्यों का कर्तव्य है कि वे अपने पूज्यों से डरें, क्योंकि यही निर्भय होने का साधन है।
हे भृगुकुल तिलक! “अभय होई जो तुम्हई डेराई।”- आपके विप्र स्वरूप से हमें अभय मिला है। हे विप्रदेव, हम तो क्षत्रिय कुल के हैं, उस पर रघुवंशी हैं, और ये हमारे कुल का स्वभाव ही ऐसा है कि ‘हम काल से भी नहीं डरते’-
“कहउं सुभाउ न कुलहिं प्रसंसी।
कालहु डरहिं न रन रघुबंशी।।”
हे परशुराम! हम तो कुल के स्वभाव से ही वीर हैं किंतु आप न केवल स्वभाव से वरन् प्रभाव (प्रभुता) से भी महिमावंत हैं। विप्रवंश की ऐसी ही प्रभुता है कि आपके दर्शन मात्र से अभयता आ जाती है।
“जासु त्रास डर कहुं डर होई।
भजन प्रभाउ देखावत सोई।।
अर्थात ब्राह्मणों के भय से डर को भी डर लगता है।
ये ब्राह्मणों के ही भजन का प्रभाव है कि वे प्रभु श्री राम जिनकी भृकुटि टेढ़ी होने पर काल भी थरथर कांपता है, वे राम ब्राह्मणों से डरने वाले हैं क्योंकि उनके भजन का प्रभाव ही ऐसा है।
आगे प्रभु श्रीराम परशुराम जी से कह रहे हैं-
“देव एकु गुन धनुष हमारें।
नव गुन परम पुनीत तुम्हारे।।”
हे विप्रदेव! हमारे तो केवल एक गुण है और वो है धनुष अर्थात क्षत्रिय गुण। किंतु आपके पास तो नौ गुण हैं यथा- शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, इन्द्रिय निग्रह, आस्तिकता।
यहां पर रघुवंश शिरोमणि राम विप्रवंशी परशुराम के गुण समूह की स्तुति कर रहे हैं कि क्षत्रियों के पास एक गुण है (इसका एक अभिप्राय ये भी है कि राम परशुराम से कह रहे कि देखिए विप्रवर! ब्रह्म एक है और आप नौ गुण अर्थात अष्टधा प्रकृति और एक आत्मा, सम्पन्न जीव हैं। किंतु आज परशुराम जयंती पर इसकी व्याख्या नहीं कर रहा, विषयांतर हो जाएगा-इसलिए फिर कभी) किंतु ब्राह्मणों के पास शम-दम आदि नौ गुण अथवा ब्राह्मणदेव नवधाभक्ति सम्पन्न अंश अवतार हैं।
अंत में पुनः श्रीराम भगवान परशुराम से कहते हैं-
“जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भ़गुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ।।”
हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मणों का निरादर करते तो संसार में कौन ऐसा योद्धा है जिसे हम डरकर शीष नवायें?
हे भृगुनंदन! ये तो विप्रवंश की प्रभुता है कि हम आपसे डरकर ही भयमुक्त हो गए, निर्भय हो गए।
आपके श्री चरणों में मुझ रघुवंशी राम का साष्टांग प्रणाम।
प्रेम से बोलिए जय परशुराम।
जय जय श्री राम।।
ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव।।
नोट:- “अहिंसा परमो धर्मः धर्महिंसा तदैव च”(हालांकि धर्महिंसा तदैव च शास्त्र में कहीं मिलेगा नहीं)…. ठीक यही परशुराम धर्म है और वर्तमान के लिये ग्राह्य भी है। परशु-धर्म, जो आतताइयों, दुर्जनों, अत्याचारियों के लिये साक्षात काल है, उस परशुराम धर्म को पुनः अंगीकार करने का समय आ चुका है। जो इसे नहीं समझ रहा, न समझना चाहता है… यही शुतुरमुर्ग होने का प्रमाण है।
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