नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु को लेकर लिविंग विल पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। बुधवार को इस केस पर सुनवाई पूरी होने के बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा है। सुनवाई के दौरान लिविंग विल को लेकर याचिका दायर करने वाले पक्ष ने अदालत से कहा कि शांति से मरने का अधिकार भी संविधान के आर्टिकल 21 के तहत आने वाले जीने के अधिकार का ही हिस्सा है।
इससे पहले इच्छामृत्यु का हक दिए जाने के विरोध में मंगलवार को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि इसका दुरुपयोग हो सकता है। सरकार ने कहा कि लिविंग विल का हक नहीं दिया जाना चाहिए। लिविंग विल यानी जीवित रहते इस बात की वसीयत कर जाना कि लाइलाज बीमारी से ग्रसित और मृतप्राय स्थिति में पहुंच गए शरीर को जीवन रक्षक उपकरणों पर न रखा जाए और मरने दिया जाए।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मंगलवार को लिविंग विल (इच्छामृत्यु) पर सुनवाई शुरू की। गैर सरकारी संस्था कामनकाज ने लिविंग विल का अधिकार देने की मांग की है। याचिका में कहा गया है कि सम्मान से जीवन जीने के अधिकार में सम्मान से मरने का अधिकार भी शामिल है।
बहस के दौरान केंद्र का पक्ष रखते हुए एएसजी पी. नरसिम्हन ने कहा कि अरुणा शानबाग के मामले में अदालत मेडिकल बोर्ड को लाइलाज मृतप्राय हो गए व्यक्ति के जीवन रक्षक उपकरण हटाने का अधिकार दे चुकी है। वैसे भी हर मामले में अंतिम फैसला मेडिकल बोर्ड की राय पर ही होगा।
व्यक्ति अगर वसीयत में यह लिख भी दे कि उसे ऐसा रोग हो जाए जिसका इलाज संभव न हो और वह मृतप्राय स्थिति में पहुंच गया हो तो उसे जीवन रक्षक उपकरणों पर न रखा जाय। अगर मेडिकल बोर्ड कहता है कि व्यक्ति के ठीक होने की उम्मीद है तो उसकी वसीयत का कोई महत्व नहीं रहेगा। ऐसे में इस तरह की वसीयत का हक देने की जरूरत नहीं है।
उन्होंने भारतीय परिवेश और समाज का हवाला देते हुए कहा कि इसका दुरुपयोग हो सकता है। उन्होंने कहा कि कई पहलू हैं। जैसे कोई व्यक्ति 30 वर्ष पहले ऐसी वसीयत कर देता है और बाद में उसकी सोच बदल जाती है। या मेडिकल साइंस इतनी तरक्की कर लेती है कि स्थिति बदल गई हो।
नरसिम्हन ने कहा कि अरुणा शानबाग के फैसले में अदालत ने मृतप्राय व्यक्ति के जीवन रक्षक उपकरण हटाने के बारे में पूरी प्रक्रिया दी है और मेडिकल बोर्ड गठित करने की बात भी कही है। उसी के आधार पर सरकार ने विधेयक तैयार किया है। इसके मुताबिक, हर जिले और राज्य में ऐसा मेडिकल बोर्ड गठित किया जाएगा। फिलहाल विधेयक सरकार के पास है।
संस्था की ओर से बहस करते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि जब किसी व्यक्ति के जीवन रक्षक उपकरण हटाने के बारे में उसके रिश्तेदार और मेडिकल बोर्ड फैसला कर सकता है तो फिर उस व्यक्ति को स्वयं जीवित रहते ऐसा फैसला करने का हक क्यों नहीं दिया जाना चाहिए।
बहस के दौरान पीठ ने साफ कर दिया कि वह बीमार व्यक्ति के होश में रहते हुए कष्ट के कारण मृत्यु की मांग करने पर विचार नहीं कर रहा है। सिर्फ मृतप्राय स्थिति में पहुंच गया व्यक्ति जो होश में नहीं है, के जीवन रक्षक उपकरण हटाने के हक पर विचार कर रहा है। हालांकि कोर्ट ने भी लिविंग विल के दुरुपयोग की आशंका जताई। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि बुर्जुगों की हालत अच्छी नहीं है। समाज का एक वर्ग उन्हें बोझ समझता है। ऐसा रिपोर्टो में कहा गया है। फिर यह कैसे तय होगा कि किस समय से व्यक्ति की लिविंग विल प्रभावी मानी जाए। ऐसे कई सवालों पर कोर्ट बुधवार को विचार करेगा।
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