देहरादून। कोविड -19 महामारी के पश्चात कई राज्यों की वित्तीय स्थिति चिंताजनक रूप से ख़राब हो गई है, जिसको सुधारने के लिए स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों को मजबूत करने के साथ साथ, राज्य स्तर पर वित्तीय अनुशासन आवश्यक है। कोविड -19 के पश्चात, राज्य वित्त आयोग के आंकलन और उस पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की सुझाव के मुद्दे पर आज, दून विश्वविधालय के अर्थशास्त्र विभाग के विद्यार्थियों की इकनोमिक डिस्कशन फोरम के तत्त्वाधान में आयोजित गोष्ठी में, वक्ताओं ने एक सुर में वित्तीय अनुशासन की महत्ता पर जोर दिया।
इस अवसर पर मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के प्रधान सलाहकार डॉ देबा प्रसाद रथ, ने कहा कि हालांकि अधिकांश राज्यों ने तेज गति से सुधार करना शुरू कर दिया है, और संतोषजनक प्रगति कर ली है, लेकिन यह राजकोषीय अनुशासन की कीमत पर हो रहा है। विभिन्न राज्य सरकारों और भारतीय रिजर्व बैंक के साथ-साथ भारत सरकार के उपायों ने राजकोषीय स्थिति के सुधारीकरण को प्रोत्साहित करने में मदद की है, जैसा कि सकल घरेलू उत्पाद के सापेक्ष सकल राजकोषीय घाटे (ग्रॉस फिस्कल डेफिसिट) के अनुपात में दिखाई दे रहा है। हालाँकि अनेक राज्यों जैसे पंजाब, बिहार, केरल, राजस्थान और पश्चिम बंगाल, में उच्च ऋण अनुपात अभी भी एक चुनौती है।
अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर आरपी ममगाईं ने कहा कि उत्तराखंड अपने वित्तीय घाटे और सार्वजनिक वित्त के प्रबंधन के मामले में कई अन्य राज्यों की तुलना में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन कर रहा है। हालाँकि उत्तराखंड राज्य में सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) की रिकवरी राष्ट्रीय औसत से कम है, फिर भी, कोविड 19 से पहले के सापेक्ष उत्तराखंड में यह बहुत अच्छी स्थिति में हैं। प्रोफेसर ममगाईं ने कहा कि राज्य के भीतर विभिन्न जिलों में आर्थिक असमानताएं एक चिंता का विषय है जिसे राज्य के वित्त संबंधी शोध एवं विश्लेषण में शामिल करने की आवश्यकता है।
आरबीआई के शोधकर्ता डॉ पी एस रावत, श्री रचित सोलंकी और उत्तराखंड सरकार के पूर्व मुख्य सचिव एन रविशंकर सहित अनेक विशेषज्ञों ने इस विषय पर अपने विचार रखे। आज की इस चर्चा का मुख्य विषय उत्तराखंड राज्य में वित्तीय हालत पर कोविड -19 महामारी का असर था। विदित हो कि कोविड -19 ने अनेक राज्यों की वित्तीय स्थिति को ख़राब कर दिया है. कोविड -19 के कारण, राजस्व में कमी हुई है, प्रतिबद्ध व्यय का एक बड़ा हिस्सा, और बढ़ती सब्सिडी के बोझ ने राज्य सरकार की आर्थिक स्थिति को ख़राब कर दिया है। राजनीतिक मजबूरियों के तहत, अनेक प्रकार की फ्री-बी की घोषणा के कारण, राजस्व के स्रोत घट रहे हैं और खर्चे बढ़ रहे हैं। इसका एक उदाहरण आकस्मिक देनदारियों के विस्तार और डिस्कॉम्स के बढ़ते अतिदेय के रूप में सामने आए हैं। DISCOMs को घाटे से उबारना राज्यों के लिए एक बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौती है। इस विकट स्थिति को देखते हुए, सामान्य समय में नकद सब्सिडी देने की प्रवृत्ति, मुफ्त उपयोगिता सेवाओं का प्रावधान, कुछ राज्यों द्वारा पुरानी पेंशन को लागू करने की योजना, के साथ साथ कुछ सेवाओं में गारंटी की घोषणा और भारत में विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा निहित और स्पष्ट गारंटी का विस्तार एक दुधारी तलवार है। .
राज्य सरकारों को अपने राजस्व सृजन में वृद्धि करते हुए अपने उच्च ऋण अनुपात का प्रबंधन करने की आवश्यकता है। उन्हें अपने खर्चों को अधिक विवेकपूर्ण तरीके से प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। इस में मुख्य तौर पर, वित्तीय अनुशासन बनाए रखने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्रों में खर्चों और सब्सिडी को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
आज की गोष्ठी का आयोजन, दून विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभागाध्यक्ष प्रो. राजेंद्र पी ममगाईं के दिशानिर्देशन में किया गया । व्याख्यान की अध्यक्षता उत्तराखंड सरकार के पूर्व मुख्यसचिव तथा वर्तमान में, डीआईटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डॉ. एन रविशंकर ने की। व्याख्यान में पूर्व नौकरशाह जेपी ममगाईं, केएन नौटियाल, डॉ प्रेम बहुखंडी, प्रो हर्ष डोभाल, प्रो अविनाश जोशी, डॉ सुधांशु जोशी, दून विश्वविद्यालय के संकाय और छात्रों ने ने भाग लिया।