भारत में आतिशबाजी की 3000 वर्षीय परंपरा, नमन कृष्ण भागवत किंकर महाराज ने किया ऐतिहासिक वर्णन

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रिपोर्ट: ललित जोशी

नैनीताल। सरोवर नगरी नैनीताल से दूर महाराज नमन कृष्ण भागवत किंकर ने व्हाट्सएप के माध्यम से जिला संवाददाता ललित जोशी को आतिशबाजी के इतिहास पर एक महत्वपूर्ण संकलन भेजा है। इसमें उन्होंने बताया है कि भारतीय संस्कृति में लगभग 3000 वर्षों से उत्सवों और त्योहारों के दौरान आतिशबाजी का चलन रहा है। उन्होंने उल्लेख किया कि पटाखे मुख्यतः बारूद के चूर्ण से बनाए जाते हैं, जिसका ज्ञान भारतीयों को प्राचीन काल से था।

भागवत ने बताया कि महाभारत और रामायण काल में अग्निबाणों का प्रयोग इसी बारूद से होता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अग्निचूर्ण के प्रयोग का उल्लेख मिलता है, जो यह दर्शाता है कि इस सामग्री का उपयोग उत्सवों में रंगीन रोशनी के लिए भी किया जाता था।

उन्होंने यह भी कहा कि भारत से प्राप्त इस विधा का उपयोग बाद में चीनियों ने कई प्रकार से किया और 16वीं शताब्दी तक भारत और यूरोप में आतिशबाजी का निर्यात शुरू कर दिया। औरंगजेब के शासनकाल में 1665 में दिवाली पर आतिशबाजी पर रोक लगाई गई थी, जिसका पत्र बीकानेर संग्रहालय में सुरक्षित है।

ध्यान देने योग्य है कि 17-18वीं शताब्दी में भारत में आतिशबाजी का चलन तेजी से बढ़ा और 19वीं सदी की शुरुआत में कलकत्ता में पहली पटाखा फैक्ट्री स्थापित की गई। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि भारत में आतिशबाजी की परंपरा आधुनिकता की देन नहीं, बल्कि एक समृद्ध ऐतिहासिक विरासत है।

भागवत ने प्रोफेसर परशुराम कृष्ण गोडे का उल्लेख किया, जिन्होंने प्राचीन भारत में आतिशबाजी के इतिहास पर महत्वपूर्ण शोध किया है। उन्होंने बताया कि दीवाली पर पटाखे छोड़ने की परंपरा कोई नई नहीं है, बल्कि यह उत्सव मनाने का एक अभिन्न हिस्सा है।

अंत में, उन्होंने सुझाव दिया कि पटाखों से उत्पन्न प्रदूषण को कम करने के लिए वैज्ञानिक शोध आवश्यक है, और समाज को इकोफ्रेंडली पटाखों के विकास की दिशा में काम करना चाहिए।

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